नमस्कार मित्रों ,
मैं आचार्य सतीश थपलियाल एक बार पुन: प्रस्तुत हुआ हूँ, अपने नए ब्लॉग के साथ चंद्रबदनी मंदिर का नाम चंद्रबदनी क्यों पड़ा ?
🚩चन्द्रबदनी मंदिर🚩

चन्द्रबदनी मंदिर देवी सती की शक्तिपीठों में से एक एवम् पवित्र धार्मिक स्थान है | चन्द्रबदनी मंदिर टिहरी मार्ग पर चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित लगभग आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है | यह मंदिर देवप्रयाग से 33 कि.मी. की दुरी पर स्थित है | आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने यहां शक्तिपीठ की स्थापना की । धार्मिक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि में चन्द्रबदनी उत्तराखंड की शक्तिपीठों में महत्वपूर्ण है। स्कंदपुराण, देवी भागवत व महाभारत में इस सिद्धपीठ का विस्तार से वर्णन हुआ है। प्राचीन ग्रन्थों में भुवनेश्वरी सिद्धपीठ के नाम से चन्द्रबदनी मंदिर का उल्लेख है। चन्द्रबदनी मंदिर से सुरकंडा, केदारनाथ, बद्रीनाथ चोटी आदि का बड़ा ही मन मोहक, आकर्षक दृश्य दिखाया देता है | मंदिर परिसर में पुजार गांव के निवासी ब्राहमण ही मंदिर में पूजा अर्चना करने आते हैं । मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है । किवंदती है कि सती का बदन भाग इस स्थान पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है । पुजारी भी आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं । जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था । चंद्रबदनी मंदिर में माता के दर्शन करने को हमेशा श्रद्धालुओं की भीड़ जुटी रहती है | सिध्पीठ चन्द्रबदनी मंदिर में जो भी भक्त एवम् श्रद्धालु भक्तिभाव के साथ मन्नते मांगने आता है माँ चन्द्रबदनी भक्त एवम् श्रद्धालु की मन्नतो को पर्ण कर देती है | मन्नते पूर्ण होने जाने श्रद्धालु जन कंदमूल, फल, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चुन्नी, चाँदी के छत्तर चढ़वा के रूप में समर्पित करते है |
“चन्द्रबदनी मंदिर” का नाम “चन्द्रबदनी” कैसे पड़ा ?📝
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श्री चन्द्रबदनी सिध्पीठ की स्थापना की पौराणिक कथा देवी सती से जुडी हुई है | पौराणिक कथा के अनुसार एक बार देवी सती के पिता राजा दक्ष ने भव्य यज्ञ का आयोजन किया , जिसमे उन्होंने भगवान शंकर को छोड सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया था | देवी सती की मां के अलावा किसी ने भी वहां सती का स्वागत नहीं किया । यज्ञ मंडप में भगवान शंकर को छोड़कर सभी देवताओं का स्थान था । देवी सती ने अपने पिता जी राजा दक्ष से भगवान शंकर का स्थान न होने का कारण पूछा तो राजा दक्ष ने उनके बारे में अपमानजनक शब्द सुना डाले । जिस पर गुस्से में देवी सती यज्ञ कुंड में कूद गईं । सती के भस्म होने का समाचार पाकर भगवान शिव वहां आए और राजा दक्ष का सिर काट दिया। भगवान शिव शोक करते हुए सती का जला शरीर कंधे पर रख कर तांडव करने लगे । उस समय प्रलय जैसी स्थिति आ गई । सभी देवता शिव को शांत करने के लिए भगवान विष्णु से आग्रह करने लगे । इसी दौरान भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया था इसलिए जहां-जहां सती के अंग गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए । मान्यता है कि चंद्रकूट पर्वत पर सती का बदन (शरीर) गिरा, इसलिए यहां का नाम “चंद्रबदनी” पड़ा।
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ज्योतिषाचार्य सतीश थपलियाल
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